प्रेम की विभिन्न भावदशाओं और आम जनमानस की त्रासदी का स्वर है “शिव कुमार राय की ग़ज़लगोई”

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किसी भी अच्छे कवि का काम होता है कि वह समाज को अपनी रचनात्मक क्षमता से रू-ब-रू कराएं तथा समाज में व्याप्त समस्याओं को भी उजागर करें। ऐसा ही सराहनीय कार्य समकालीन संदर्भ को लेते हुए शिव कुमार राय जी भी करते हैं। अपनी गजलों के माध्यम से वे इन तमाम पक्षों पर बेबाकी से अपनी राय रखने में सफल हुए हैं।

किताब का नाम
चलन के खिलाफ
लेखक
शिव कुमार राय
पुस्तक का मूल्य
Rs. 250/-
प्रकाशक
परिन्दे प्रकाशन
प्रकाशन तिथि
1 जनवरी, 2019
समीक्षक
वेद प्रकाश सिंह

किसी भी अच्छे कवि का काम होता है कि वह समाज को अपनी रचनात्मक क्षमता से रू-ब-रू कराएं तथा समाज में व्याप्त समस्याओं को भी उजागर करें। ऐसा ही सराहनीय कार्य समकालीन संदर्भ को लेते हुए शिव कुमार राय जी भी करते हैं। अपनी गजलों के माध्यम से वे इन तमाम पक्षों पर बेबाकी से अपनी राय रखने में सफल हुए हैं। तमाम ग़ज़लकारों की कड़ी में शिव कुमार राय जी का भी एक बड़ा नाम है। जैसा कि हम जानते हैं इसकी शिव कुमार राय जी भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी के रूप में वर्तमान समय में नई दिल्ली में संयुक्त आयकर आयुक्त के पद का भी निर्वहन कर रहे हैं। इनके तमाम लेख, कहानियां, ग़ज़लें, कविताएं समय-समय पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रहती हैं। इसी क्रम में उनकी एक ग़ज़ल संग्रह “चलन के खिलाफ” जो कि लगभग 93 ग़ज़लों का एक नया संग्रह हैं, ‘परिंदे प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ हैं।

शिव कुमार राय जी समाज के एकदम नए मुद्दों पर बात अपनी ग़ज़लों के माध्यम से करते हैं। उनकी ग़ज़लों को पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि जैसे हम वर्तमान समय के समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं से रू-ब-रू हो रहे हैं। इनकी ग़ज़लों पर अगर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि इस ग़ज़ल संग्रह की तमाम ग़ज़लें किस हद तक सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलती व आम जनमानस के समस्याओं से समाज को रू-ब-रू कराती दिखाई पड़ती हैं। एक जगह पर तो ग़ज़लकार स्वयं लिखता है कि “उसकी सारी गजलें उसकी आंतरिक अनुभूतियों की उपज हैं” अर्थात जो उसने समाज, परिवार, लोगों को बीच में रहकर तमाम घटित घटनाओं को देखा, समझा, जाना उस पर भी बेबाकी से अपनी बात रखने का सफल प्रयास किया है। इनकी ग़ज़लों में प्रेम की भी विभिन्न भाव दशाएं दिखाई पड़ती हैं, शासन-सत्ता के शोषण का भी प्रत्यक्ष रूप दिखाई पड़ता है। शिव कुमार राय की ग़ज़लों की अगर बात करें तो हम पाते हैं कि उनकी ग़ज़लों में किस प्रकार से आम आदमी की विभीषिका, महंगाई की समस्या, कार्यालयों में फैली दुर्व्यवस्था, बिकाऊ मीडिया इत्यादि प्रमुख मुद्दे जो कि तात्कालिक समय में बहुत ही ज्वलंत हैं, पर इनकी कलम बहुत ही बारीकी के साथ चली है, इसी संदर्भ में उनकी एक ग़ज़ल “आखिर उन्हें समझाएं कैसे” का एक नमूना देखते हैं –

वो अब सत्ता में आ गए हैं, तो यह बात आखिर उन्हें समझाएं कैसे
विपक्षियों की तरह हरकतें करने की उनकी यह आदत छुड़ाएं कैसे
सब ठीक कर देंगे, यही तो कहते थे हर चुनावी रैली में जोरों से
मौका मिला है तो कहते हैं इतनी चीजें हम करके दिखाएं कैसे।।

आगे बढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि शिव कुमार की ग़ज़लों में इसके इतर विशेषतः बच्चों के भोलेपन, उनकी मासूमियत और उनकी हर भूलों को क्षमा करने की जो निराली बात मिलती है उसका भी एक सुंदर सा रूप उनकी ग़ज़ल में कुछ इस प्रकार मिलता है उनकी एक ग़ज़ल है “बच्चा बनकर देखो” में शिव कुमार राय कुछ इस प्रकार से बचपन के दिनों को याद करते हुए लिखते हैं-

हो जाता है इश्क बच्चों से भी, कभी करके देखो
सिर्फ प्यार भरा है, दिल में इनके गुजर कर देखो
शिकायत अगर है कि बच्चे समझते ही नहीं
क्या होता है बच्चा होना, बच्चा बनकर देखो।।

शिव कुमार राय की गजलें एक नए कलेवर में सामने आती हैं उनकी ग़ज़ल “पता नहीं कौन किसको समझा रहा है” पढ़ने पर पता लगता है कि आज के समय में किस प्रकार पारिवारिक उलझन व गृहस्थी में सामंजस्य बिठाने में व्यक्ति हताश होता जा रहा है इस प्रकार के तमाम मुद्दे पर शिव कुमार राय जी बेबाकी से अपनी राय रखते हैं बदलते आधुनिक युग में किस प्रकार से आधुनिकीकरण व्यक्ति को आच्छादित कर रहा है और किस प्रकार मनुष्य बदलते आधुनिक युग में अत्यधिक आधुनिक बनने की अंधी दौड़ में हर वस्तु की कमी की पूर्ति करते हुए भी सुकून नहीं पा रहा है और लगातार आधुनिक बनने के फेर में भी अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है और उसका असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा हैं, इन तमाम मुद्दों पर भी वो अपनी ग़ज़लों में बहुत बेबाकी से राय रखते हैं-

यह वाला सस्ता है उस पर बहुत छूट हैं, यह शोर घर तक आ रहा हैं
असीम चाहतों को पूरा करने में अब आदमी का दम निकलता जा रहा हैं
जरा सोचिए किस कदर फंसा हैं, आदमी अपने ही बुने हुए जाल में
नया मॉडल आ गया हैं सामान का, पुराना लेकर चलते हुए सकुचा रहा हैं।।

आगे बात करें तो पाते हैं कि शिव कुमार राय की ग़ज़लें प्रेम की तमाम भावदशाओं का भी चित्रण करने में बखूबी सफल हुई हैं। ग़ज़लकार यहां पर प्रेम की दु:खद और सुखद दोनों रूपों को दिखाने में भी में भी उम्दा सफलता प्राप्त करता है, ग़ज़लकार लिखता है कि प्रेम सदा एक दूसरे को समझने, हर प्रकार से खुशहाल रखने की वस्तु हैं, जहां पर कोई मांग व दबाव नहीं होता परंतु अगर इसमें गलतफहमियां आ जाएं तो प्रेम का रूप बदलने में देर भी नहीं लगती इसी मुद्दे को लेकर उनकी एक ग़ज़ल याद आती है जिसका शीर्षक है “मुझको भी शिकायत नहीं होती” में ग़ज़लकार इस रूप का वर्णन करता है-

तुम मेरी बात रख लेते, मैं भी तुम्हारी बात रख लेता
कभी तुम थोड़ा सा लेते, कभी मैं भी थोड़ा सह लेता
तुम भी रहते खुशहाल, मुझको भी शिकायत नहीं होती
तुम भी अपनी कह लेते, मैं भी अपनी बात कह लेता।।

शिव कुमार राय की तमाम अन्य ग़ज़लों पर अगर नजर डाले हैं तो पाते हैं कि उसमें शासन की शोषणकारी नीति और उससे पीड़ित आम जनता तथा साल दर साल होने वाले चुनावी वादों की तरह आते जाते विकास कार्यों की खस्ताहाल और उससे उत्पन्न तमाम कठिनाइयां झेलती आम जनता के वीभत्स रूप के बारे में भी अपनी ग़ज़लों में बेबाकी से बात रखने में सफल हुए हैं, उनकी ग़ज़ल “विकास कार्य जारी हैं” में इसका रूप दिखलाई पड़ता है इसमें ग़ज़लकार बताने का प्रयास करता हैं कि ये चुनावी मुद्दे केवल चुनाव के दौरान एक हथियार के रूप में इस्तेमाल होते हैं-

जरा संभल कर चलिए, शहर में जोरों पर विकास कार्य जारी हैं
यह सड़क ठीक से खुद गई है, अब बगल वाली सड़क की बारी हैं
भाषणों के लिए तो चौराहों पर किसी तरह जगह बन ही जाएगी
यह सड़क नहीं है, आगामी चुनावों के लिए महज एक तैयारी हैं।।

शिव कुमार राय जी एक प्रशासनिक अधिकारी होते हुए भी जिस प्रकार से अपनी ग़ज़लों में बातों को बिना किसी भय के साथ सूक्ष्म से सूक्ष्मतम मुद्दों पर बात करते हैं उससे उनकी एक बेबाक छवि भी सामने उभर कर आती है जो उनकी ग़ज़ल “ये सियासी फैसले हैं” में भी दिखाई पड़ती है, ग़ज़लकार कहता है-

यह सियासी फैसले हैं, सबके समझ में नहीं आएंगे
ये लोग मगर कब तक, किसी का सब्र आजमायेंगे
कभी राष्ट्रीय सुरक्षा तो कभी हवाला जनहित का
खुद के फायदे के लिए वह गिरते ही चले जाएंगे
लोकतंत्र में सब कुछ आवाम से ही पूछकर होगा
यह कभी होगा भी या उससे पहले हम मर जाएंगे।।

कवि या ग़ज़लकार वही सफल माना जाता है जो अपनी कविताओं या ग़ज़लों के माध्यम से अपने समाज की तमाम समस्याओं को सामने लाने का माद्दा रखता हो इसी क्रम में अगर हम देखें तो आते हैं कि शिव कुमार राय जी इस मामले में काफी आगे खड़े दिखाई पड़ते हैं उनकी ग़ज़लों में छटपटाहट का स्वर भी दिखाई पड़ता हैं, सरकार के दोधारी वीभत्स रूप का भी वर्णन इनकी ग़ज़लों में दिखलाई पड़ता हैं, अपने ग़ज़ल में शिव कुमार राय जी दिखाते हैं कि सरकार किस प्रकार चाहती हैं कि समाज में बेरोज़गारी, सांप्रदायिकता, जातिवाद तमाम मुद्दे बने रहें ताकि उनको मलाई काटने का भी भरपूर अवसर मिलता रहे। अपनी ग़ज़लों में दलबदलू नेता व चुनावों के दौरान होने वाले तमाम भ्रमपूर्ण बदलावों का भी खाका शिव कुमार राय जी खींचने में सफल होते हैं, अपनी ग़ज़ल “वो तो चाहते ही हैं” में लिखते हैं –

वो तो चाहते ही हैं, तुम्हारी बेकारी बनी रहे
ताकि उनके लिए तुम्हारी वफादारी बनी रहे
कौन धरने पर बैठेगा, कौन लाठियां खाएगा
सियासत हमेशा चाहेगी बेरोजगारी बनी रहे।।

आगे ग़ज़लकार दिखाना चाहता कि किस प्रकार हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदाएं सरकारों या किसी विशेष खासकर पूंजीवादी वर्ग के लाभ कमाने के मुद्दे बन जाते हैं। हमारे देश में तमाम लोग इस प्रकार की आपदाओं खासकर सूखा, बाढ़ सुनामी, भूकंप, चक्रवात आदि से लाखों की संख्या में जान गंवाते हैं पर फिर भी राहत बचाव कार्य और उसके नाम पर व्यय होने वाले संसाधन किंचित मात्र होते हैं तथा जरूरतमंद तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती इस बात को भी बेबाकी से शिव कुमार राय अपनी ग़ज़ल “कुछ क्रूर वास्तविकतायें” में इस प्रकार बतलाते हैं-

यह निरा भ्रम है कि सूखा बाढ़ प्राकृतिक आपदायें हैं
यह हमेशा से हर किसी के लाभ की परियोजनायें हैं
प्रतिकूलताओं का स्थाई समाधान हो तो सकता हैं
अफसोस! हमारे देश की कुछ क्रूर वास्तविकतायें हैं।।

समकालीन समाज में उभरते कवि शिव कुमार राय जी अपनी गजलों में दिल के जख्मों और प्रेम में पागल हुए आशिकों तक की बात भी बहुत गंभीरता से व्यक्त करते हैं ग़ज़लकार बताता है कि प्रेम के लिए इन प्रेमियों को सिरफिरा, आवारा तक कहा जाता है फिर भी मोहब्बत के लिए यह आशिक किस हद तक तमाम कष्ट सहकर भी अपने इश्क को मजबूत करने और उसे पाने में लगे रहते हैं और अपने प्यार को अमर बनाने को लगातार परेशानियां झेलते हुए भी वे मोहब्बत को पाने का असफल प्रयास करते हैं जो शायद सच्चे प्रेम का भी एक उदाहरण हो सकता है उनकी एक ग़ज़ल “जिंदाबाद कह रहा है दिल” में इसका एक रूप देखिए-

ना मिली मोहब्बत तो मर गए, यही लोग कहते हैं
नाकाम आशिकों के चर्चे रोज़ अखबारों में रहते हैं
इश्क में जिंदगी हराम हैं, सब यहीं सीखते-सिखाते हैं
सिरफिरे हैं कुछ मगर, जो मोहब्बत की राह लगते हैं
जिंदाबाद कह रहा है दिल, इन चाहने वालों के लिए
सहना पड़े इश्क की राह में, जो भी, जुल्म सहते हैं।।

ग़ज़लकार प्रेम की दशा तथा उससे मिले दुःख को भी अपनी ग़ज़ल संग्रह “चलन के खिलाफ” में तमाम ग़ज़लों के माध्यम से रेखांकित करने में सफल हुए हैं। ग़ज़लकार बताते हैं कि किस प्रकार से प्रेम होना तथा उसके पश्चात प्रेम में अलगाव हो जाना बेहद ही नाजुक पक्ष माना जाता हैं, इन तमाम पक्षों को ग़ज़लकार ने अपनी तमाम ग़ज़लों में पिरोया हैं, आगे ग़ज़लकार कहता है कि प्यार का सिलसिला जब शुरू होता है तो तमाम नयें-नयें विचार, भावनाएं मन में आती हैं। प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से एक पल भी दूर नहीं रहना चाहते हैं , साथ-साथ घूमना, तमाम बातें करना इत्यादि चीजें होती हैं परंतु कुछ समय पश्चात जब सबकुछ अचानक पता नहीं क्यों समाप्त होने लगता है तो केवल उसकी मीठी सी यादें ही जीवन में बची रह जाती हैं जो ताउम्र साथ रहती हैं और ग़ज़लकार तन्हा होकर उनकी यादों में खोया-खोया सा रहते हुए जीवन बिताने पर मजबूर हो जाता है इस के संदर्भ में उनकी ग़ज़ल “कुछ धुआं-धुआं था जरूर” की कुछ पंक्तियां देख सकते हैं-

किसी से प्यार का सिलसिला शुरू हुआ था जरूर
अगड़ाई के दिन आए थे, वो भी जवां हुआ था जरूर
बिना पिये भी नशा सा रहता था, खाते हैं कसम तेरी
यूं निगाहों से जो भी मुमकिन था, वह पिया था जरूर
इक खुशनुमा ख्याल सा अभी कल ही बीता लगता है
वो हकीकत थी, वो ख्वाब था; कुछ धुआं-धुआं था जरूर।।

शिव कुमार राय की इस संग्रह की ग़ज़लें जहां एक और प्रेम का आस्वादन पाठकों को कराती हैं वहीं दूसरी ओर आम जनमानस की तमाम समस्याओं व लोकतंत्र की खामियों को भी गिनाती हैं। निःसंदेह कहा जा सकता है कि राय जी का यह ग़ज़ल संग्रह हिंदी ग़ज़ल के इतिहास में बहुत ही उम्दा व शानदार विषयों के माध्यम से समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाने में कारगर हो सकता हैं। इस संग्रह को सभी को पढ़ना चाहिए।।

समीक्षक परिचय

वेद प्रकाश सिंह
संप्रति- शोधार्थी
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश- 211002
ई-मेल – vedprakashsingh034@gmail.com

About the Book

एक तरफ़ प्रेम को एक नया आयाम देते हुये ‘किसी से मुहब्बत का, सिलसिला शुरू हुआ था ज़रूर’ जैसी गज़ल और दूसरी तरफ़ ‘हम भी तो साथ थे लड़ाई में, हमें भी तो हिस्सा दो मलाई में’ जैसी पंक्तियों के साथ नग्न यथार्थ का चित्रण करता हुआ ‘चलन के ख़िलाफ़’ नाम का यह ग़ज़ल संग्रह अपने नाम के अनुरूप ही बहुत सी रूढ़ियों को तोड़ते हुये अपनी एक नयी परम्परा स्थापित करता है । ‘ये निरा भ्रम है, कि सूखा-बाढ़ प्राकृतिक आपदायें है’ ग़ज़ल पढ़ कर एक ओर तो लगेगा कि क्या आदमी में अब कुछ आदमियत बची भी है, वहीं दूसरी ओर ऐसी ग़ज़ल पढ़ के यह भी लगेगा कि इस आदमियत की चिंता करने वाली शायरी जब तक जिंदा रहेगी, आदमियत भी जिंदा रहेगी । शायद इसीलिये जहाँ प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘हिंदुस्तान’ ने अपनी समीक्षा में कहा कि- ‘शिव कुमार राय की गज़लें समसामयिक यथार्थ की पेचीदगी और विद्रूपता को बेलाग ढंग से व्यक्त करती हैं’; वहीं ‘अमर उजाला’ ने पुस्तक समीक्षा करते हुये अपनी बात यूँ कही कि “राय की ये गज़लें मौजूदा वक़्त का आईना हैं जिनमें सच की स्याह सफ़ेद तस्वीर देखी जा सकती है” । इसीलिये ख़ुद को जिंदा महसूस करने के लिये जरूरी यह ग़ज़ल संग्रह- ‘चलन के ख़िलाफ़’।

प्रेम की विभिन्न भावदशाओं और आम जनमानस की त्रासदी का स्वर है “शिव कुमार राय की ग़ज़लगोई”

 

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